Saturday, October 19, 2013

अमृता प्रीतम : एक खुशगवार झोंका







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धर्मयुग ( पत्रिका ) ...28 नवम्बर 1982


संस्मरण

ज्ञान पीठ पुरस्कार

अमृता प्रीतम : एक खुशगवार झोंका

पद्मा सचदेव ( लेखिका )

राजधानी की गर्मियों की शाम थी | खट्टी - मिट्ठी हवा कभी - कभी चल जाती थी | लू के झोंके कम हो गये थे | बीच - बीच में ठंडा झोंका मुंह पर शबनम की तरह चुहचुहा आये पसीने की बूंदों को एक - एक कर के लिटा जाता था | छतों पर बैठना खुशगवार लगता था | ऐसी ही एक शाम , एक अदीब के घर की छत पर पंजाबी के कुछ लेखक इकट्ठे हुए थे | खुसर - पुसर के बीच उनके चेहरे पर मुस्कराहट भी खेल रही थी | न उनको इल्म था मैं यहां हूँ , न मुझे अहसास था वे क्या बातें कर रहे हैं | मैं तो उस अदबी माहौल में सिर्फ अमृता प्रीतम को देखने आयी थी |

खुसर - पुसर के बीच लोग लोग थोड़े चौकन्ने हुए | सीढियों पर हल्के हल्के कदमों की आवाजें आ रहीं थीं | हवा का एक खुशगवार झोंका आया | सभी ने देखा , सीढ़ियों में कदमों की आहट के साथ उड़ती हुयी शिफान की नीले रंग की साड़ी की सरसराहट भी शामिल थी | यह साड़ी अमृता जी ने पहन रखी थी , उसे जरा सा सम्हाले हुए सधे कदमों के साथ होठो पर हल्की सी मुस्कराहट का पुट लिए हुए वे सीढियां चढ़ रहीं थीं | पीछे - पीछे अपनी बारीक मूछों में मुस्कुराते इमरोज थे | उनके आते ही खुसर - पुसर बंद हो गयी | सभी अदवाईन की चारपाईयों की चिल्लाहटों को नजरअंदाज करते हुए एक साथ उठ खड़े हुए | उन्होंने कब मुखौटे चढ़ा लिए थे यह कोई न जान पाया | हंसते हुए हाथ मिलाते हुए . अपने पास बिठाते हुए , फिर कहकहे , चुटकियां , हंसी - मजाक होता रहा | किसी ने शायद यह भी कहा था -- " यह पद्मा है , डोगरी की कवियित्री | " और उन्होंने दिलचस्पी के साथ एक नजर भी मारी थी | पर मैं , जो इतने बरसों से उनके बारे में सुनती आ रही थी , चाहती रही , वे मुझे अपने पास बुला कर प्यार से बात करें | यह मेरा हक था , जो मुझे उस दिन तो न मिला , पर कई बरसों बाद जब मिला , तो कोई गिला शिकवा न रहा |

मुझे अच्छी तरह याद है , उन्होंने जब अपनी कविता पढनी शुरू की थी . तो मैं डर गयी थी | इस कविता के शुरू में ' ब ' से आरम्भ होनेवाली हर गाली मौजूद थी , जैसे बदतमीज , बेवफा , बेगैरत , बेशऊर , बेमुरव्वत अदि अदि , और चूँकि मुझे यह लग रहा था कि अमृता जी सिर्फ मेरे लिए यहां आयी है , इसलिए इन गलियों का हर हथौड़ा मैंने अपने ऊपर झेला और जब उनकी कविता बंद हुयी , तो राहत की सांस ली | वैसे ' ब ' से शुरु होनेवाली गालियां , उनकी कविता में उतनी नहीं थीं जितनी मैंने गिनायी हैं | उस दिन अमृता जी शाम जितनी देर ठहरती है , उतनी ही देर ठहरीं और चली गयीं |

घर उर्फ़ साहित्य मन्दिर

फिर साहित्य अकादमी के समारोहों में उनसे भेंट हुयी | सरापा स्नेह बरसाती अमृता जी ने एक रोज मुस्करा कर कह ही दिया , " कभी घर पर आओ न | "
यह निमन्त्रण इतना अपनापन लिए हुए था कि तब से अब तक जब भी दिल्ली जाना हुआ , वहां जरूर गयी हूँ | उनके घर को घर न कह कर साहित्य का मन्दिर कहा जाय , तो ज्यादती न होगी | जिस रसोईंघर को ले कर हम औरतें सारा दिन जूझती हैं , वही काम कब इस घर में निपट जाता है , पता नहीं चलता | जैसे जिसे समन्दर के पास जल्दी पहुंचना है , वह नदी , पत्थर , पहाड़ , जंगल , खोह , मिनटों में पार कर के वहां पहुंचती है , इसी तरह अमृता जी भी झट से काम निपटा के किताबों के गिरोह में शामिल हो जाती हैं |

साहित्य के इस मन्दिर में चिड़ियों के लिए दीवारों पर कलात्मक घर बने हैं | इमरोज हंस कर कहते हैं , " ये इनका डाईनिंग टेबल है | यह झूला घर और एक बड़ा सा थाल . जिसे रस्सियों से दरख्त पर बाँध कर लटकाया गया है , यह है चिड़ियों की चौपाल , जहां ये लड़ती हैं , झगड़ती हैं और अपने - अपने मुकदमे निपटाती हैं | देखो , ये चिड़ा इस चिड़िया को मना रहा है | अपने नवजात शिशुओं को छोड़ कर यह पट्ठा तफरीह करने गया , दो दिन तक नहीं लौटा | अब चिड़िया चूं - चूं कर के डांट - डपट रही है कि कोई सगी पत्नी भी क्या डांटेगी | " यह बात सुन कर टेबुल पर बैठी अमृता जी खिलखिला कर हंस पड़ती हैं |

खाने की टेबुल को भी इमरोज ने नहीं बक्शा | इसपर भी कई रंग पुते हैं | जगह - जगह उनकी कला के नमूने लटके हैं | एक बोर्ड है -- काला बोर्ड जो टेलीफोन के उपर ही लगा है , उस पर दर्ज है , उस दिन लोगों से मिलने - मिलाने की फेहरिस्त , कुछ टेलिफोनों के नम्बर , कुछ तीर और कुछ तुक्के |

मैं इमरोज को पेंटर साहब कहती हूँ | दीवारों पर कहीं उर्दू के शेर लिखे हैं , तो कहीं अमृता जी की पंजाबी कविताओं की पंक्तियां खूबसूरत झालरों की तरह लटकी हुई हैं | कहीं उनकी किताबों के के मुखपृष्ठ बन्दनवार की तरह किसी दीवार पर सजे हैं | अमृता जी की चारपाई भी कम कलात्मक नहीं है | एकाध डिब्बा सा खोलिए तो हैरान रह जाईये | था कर रक्खे कम्बल या रजाई या छोटा तकिया उसमें बंद है | बन्दनवारों पर , अमृता जी की किताबों के मुखपृष्ठ पर एक ही औरत के नैन नक्श हैं तीखे - तीखे , पतले पतले ; और लाजवाब आंखें | ये सब औरतें इमरोज ने बनाई हैं , जो एक ही औरत की हैं | अमृता जी के सोने के कमरे की खिडकियों पर कुछ बेलें लटक आयी हैं -- जैसे चोरी - चोरी बातें सुननेवाली अल्हड़ युवतियां हों | सोने का यह कमरा , जहां बेशुमार मोटी - ताजी किताबें हैं , पंजाबी सृजन का द्वार लगता है | नागमणि का मैटर , किताबें , कलमें , प्रेस में भेजने को उतावली , जल्दी जल्दी चेक करने की अकुलाहट , उनके हाथ में जलती , कभी बुझती सिगरेट किसी आशिक के हाथ में माशूक को बुलाने का इशारा लगती है |

एक बार उनके यहां पंजाबी के बहुत से शायर इकट्ठे हुए थे | इनमें शिव इटालवी भी थे | किसी साहित्यिक गाँठ को सुलझाने - उलझाने का यत्न हो रहा था | अपनी सिगरेट जलाते , बुझाते अमृता जी सारी बातचीत उतारती जाती जा रही थी | ' नागमणि ' जैसे चिड़िया का बच्चा हो , जहां से भी चुग्गा मिला , वहीं से चोंच में दबा कर खिलाने दौड़ पड़ती हैं अमृता जी | यह गोष्ठी किसी औघड़ बाबा धूनी की लकड़ियों के इर्द - गिर्द थी | बेहद धूआं | सभी की सिगरेटें जल रहीं थीं | धुयें को और बर्दाश्त न कर पाने पर मैं यह बहाना कर बाहर निकल गयी थी कि मैं आप सब के लिए चाय बनाती हूँ | शिव इटालवी कहने लगे , " पहाड़ी, मीठी चाय बनायेगी | " मैंने कहा , " पहाड़ी चाय मीठी ही होती है | आप भी तो हिमांचली भाई हैं , तभी आपके गीतों में चाशनी और सुरों में शहद है | "

चाय बना के मैं ले आयी , तो अमृता जी ने संतोष के साथ कहा था , " यह शरीफ कुड़ी है | सिगरेट का धूआं तक बर्दाश्त नहीं कर सकती | " फिर अमृता जी की नागमणि में यह छप गया था | और अब उनका हौज खास का घर बहुत से अदीबों की तरह मेरा भी घर है | इस घर में आज तक कभी भी सीधी नहीं पहुंच पायी | हर बार भूल जाती हूँ | खाने के वक्त अमृता जी एकदम गोल - गोल फुल्के बना सकती हैं | सब्जियों में , जो काफी देर से खुद - बखुद बन रही होती हैं , एक छौंक लगा कर स्वाद भर सकती हैं | मौके पर आनेवाला अमरता के हाथ का अमृता - सा भोजन कहा सकता है | और कहते ही इलाईचीवाली चाय के बीच शुरू हो जाती है , अदबी गुफ्तगू | हर भाषा का वे पंजाबी में अनुवाद कर अपनी नागमणि को सजाती हैं | ऐसा सम्पूर्ण साहित्य को समर्पित व्यक्तित्व एक स्त्री का है , यह जान कर कितना भला लगता है |

तोहमतें , पर नफरत नहीं

मैंने उनसे पूछा था , " बरसों पहले की उस बच्ची के बारे में बतायेंगी , जो पिता की एक नजरे इनायत के लिए रात रात भर जपजी साहेब का पाठ याद करती थी , ताकि सुबह गुरुद्वारे में बगैर गलती के पढ़ सके | " तब उनकी आँखों में एक अजीब तरह का भाव आया था , जैसे किसी गैर अजनबी के बारे में कुछ याद करने की कोशिश कर रही हों | वक्त के अन्तराल का एक लम्बा घूंट भर कर जैसे उन्होंने कोई जुल्म किया हो | हां जुल्म ही तो है , उस बच्ची के बारे में सोंचना , जो भरे घड़े के सामने मोहब्बत की  एक - एक  बूंद को तरसती रही | आज उस बच्ची के मुटेयार रूप यही तो एक तोहमत है कि उसने मुहब्बतें कीं , मुहब्बतें पायीं |

जो लोग नफरत करते हैं , नफरत बांटते हैं , उन पर कोई तोहमत नहीं लगती | उनके कोई किस्से नहीं कहता | आसमान  में उड़नेवाले ख्यालों को घी की मटकी में बंद नहीं किया जा सकता | वे तो बादलों में छुपी बिजली को ढूंढ कर ही रहते हैं | भले बिजली से जल मरें , पर चमक में रोशनी होती है , जिसके उजाले में उनका व्यक्तित्व और निखर आता है | काश , वह छोटी बच्ची मैं देख पाती ! मैं उसे कलेजे से लगा कर रखती | पंजाब की पहली कवयित्री अमृता का बचपन अगर तरसा हुआ था , तो जवानी बादलों की की नन्ही - नन्ही बूंदों से सरोबार | अब जवानी के बाद की उम्र तो साहित्य के खजाने से मुंह तक भर गयी है | जब  यह खजाना छलकता है , तो सबके हिस्से में आता है |

अमृता जी का बेटा , जिसे वे प्यार से सैल्ली कहती हैं , बिलकुल माँ जैसा है | वही नैन नक्श , वही सादापन | बरसों पहले उनकी विदेशी बहू ज्योति से मिलना होता था | उसके माँ - बाप उसकी पैदाइश के बहुत पहले से विदेश में बस गये थे | मैं जब भी जाती , उसे कहती , " चलो मेरे पांव छुओ , मैं तुम्हारी मौसी सास हूं | और फिर , " तुरंत अच्छे सी चाय बना कर लाना | चलो जल्दी करो | पहले पाँव छुओ | " यह कह कर मैं अपने दोनों पांव आगे कर देती | यह सब इतनी उतावली में होता कि उसे कुछ समझ न आता | शायद जान छुड़ाने के लिए वह पांव छू कर रसोंई में चली जाती | तब अमृता जी के कमरे में इस नाटक पर हम खूब हंसते | वे कहतीं , " तुम्ही इसकी सास हो भई ! हमारे तो इसने पांव नहीं छुए | " मैं उत्तर में कहती , " आप क्या खा कर सास बनेंगीं | आपको यह सब आता ही नहीं है | बहू को दबा कर रखना चाहिए आप में कोई दम नहीं है | " और हम तीनों , यानि हमारे साथ पेंटर साहब भी खूब हंसते | फिर मैं अमृता जी को दुष्ट सासों के सुने - सुनाये कई हथकंडे सुझाती | पर वे कुछ काम की न निकलीं | विदेश से बहू के लिए कमख्वाब की कमीज लायी थीं | वह भी उसने फन कर न दिखाई | मैंने कहा , " यही चोंचले तो बहुओं को मारे डालते हैं | " और हमारा सारा सारा आसपास हंसी से आलोकित हो उठता |


कोई अगला वरका फोल !


उनकी बेटी कंदला एकदम सादा घरेलू औरत है | यानि अमृता जी की खामोश कलम | अमृता जी कहती हैं , " मेरे तीन बच्चे हैं | बेटा , बेटी और कलम | " इन तीनों में मुखर उनकी लेखनी ही है | कभी उदास , कभी मुहब्बत से भरपूर , मुहब्बत से वादे करती , मुहब्बत के पुल लांघती , मुहब्बत के संदेसे लाती , कभी सोये दिलों में जान भरती , तो कभी सोयी रूहों को जगाती | और जब सन 1947 में देश का बंटवारा हुआ था तब , जब शरीफ घरों की औरतें दालानों में सन्दूकों की तरह लूटी जा रही थीं , इन महिलाओं का दर्द इस मुखर लेखनी से लहू की तरह टप - टप गिरा था | कहते हैं जब वे एक काफिले के साथ बैलगाड़ी से हिदुस्तान आ रहीं थीं , तब उन्होंने वारिस शाह को गुहार की थी | पर अमृता जी का कहना है कि बंटवारे के बाद जब वे ट्रेन में जा रही थीं , तब रास्ते में ,घुप्प अँधेरे में ही यह रचना हुयी थी | अमृता जी की कलम से चुए इस लहू ने हिंदुस्तान व पाकिस्तान दोनों को खून के आंसू रुलाया था | " ये हुक सिर्फ एक औरत के दिल से ही उठ सकती थी | आदमी कभी इस तरह सोंच भी नहीं सकता | " और क्यों न हो दुनियां में कहीं भी जब बंटवारे हुए , जंगें छिड़ी , क्रांतियां हुईं  या मामूली लड़ाईयां , सबसे पहले जो चीज लुटी , वह  औरत की अस्मत थी | तभी तो औरत की कलम ने ही पंजाबी के बुजुर्ग शायर को ललकारा था --



अज्ज आखाँ वारिस शाह नूँ कित्थों क़बरां विच्चों बोल
ते अज्ज किताब--इश्क़ दा कोई अगला वरका फोल
इक रोई सी धी पंजाब दी तू लिख-लिख मारे वैन
अज्ज लक्खां धीयाँ रोंदियाँ तैनू वारिस शाह नु कैन
उठ दर्दमंदां देआ दर्देया उठ तक्क अपना पंजाब
अज्ज बेले लाशां बिछियाँ ते लहू दी भरी चनाब




चनाब जो मुहब्बत का दरिया है , उसमें खून बहने लगा | उस वक्त लिखी गयी यह नज्म आज भी जिन्दा है और अमृता भी इसके साथ जिन्दा रहेंगी | महाकवि दिनकर ने कहा था --- " अमृता तुम मरना नहीं नहीं , तो पंजाब की हरियाली सूख जायेगी | " अमृता उनका कहा मानेंगी यह मेरा विश्वास है |

              

Friday, October 18, 2013

सन 1888 में स्कूल में कराया गया एक बाल दिवस के अवसर का गीत |

लेखक - अज्ञात

हमें प्यार दो मम्मी , हमें प्यार दो पापा ;
हमें प्यार दो टीचर , हमें प्यार दो आंटी |
हम नन्हे मुन्ने बच्चे हैं | २
हम फूलों जैसे कोमल हैं
हम कलियों जैसे नाजुक हैं
न मारो हमें मम्मी , न मारो हमें पापा
हम नन्हे मुन्ने बच्चे हैं | २
जब होमवर्क करना भूलते हैं
तब टीचर डांट पिलाती है ...
What's your name you naughty boy ?
What's your name you naughty girl ?
Up and down , Up and down
Up and down कराते हैं
न मारो हमें मम्मी , न मारो हमें पापा
हम नन्ह मुन्ने बच्चे हैं | २

( धुन बदलेगी निचली पंक्ति में )

डांट न कभी पड़े हमें
हम प्यार भरी बात मानते हैं
प्यार भरा है दिल हमारा
प्यार सदा ही मांगते हैं
हमें प्यार दो टीचर , हमें प्यार दो आंटी
हम नन्हे मुन्ने बच्चे हैं | २
न मारो हमें टीचर , न मारो हमें आंटी
हम नन्हे मुन्ने बच्चे हैं | २



 


Friday, October 11, 2013

लेखन -- कालेज डेज का

आज सफाई करते हुए मुझे अपना बनाया एक रचनाओं का फोल्डर मिला | चाहती थी लगातार निकालूँ | पर सम्भव न हो सका |  :)

नाम था - रजनी-गंधा 
        मास - अप्रैल

याद आ गये बीते  दिन ......

मेरे कालेज डेज में लेखकगण पोस्टकार्ड , अंतर्देशीय पत्र पर रचनाएँ लिख कर डाक में डाल देते थे | इस प्रकार पाठक मित्रों को पठन सामग्री मिल जाती थी | जाहिर है यह एक प्रकार हस्तलिखित रचनाएँ हमें मिलती थी | कुछ लोग रचनाएं एक पन्ने पर टाईप कर के फोल्डर के रूप में बना उसे स्टेपल कर देते थे | हाँ डाक में डालने से पूर्व टिकट जरूर लगा देते थे |
कविताओं का संकलन निकालने  के लिए कवि से मनी ऑर्डर और रचना दोनों मांगी जाती थी , संकलन छपने पर मांगे गये मूल्य की छपी पुस्तकें  भेज दी जाती थीं | कुछ धनी पत्रिकाएं लेखक की रचना छापने के बाद उस पत्रिका लेखक को भेज देती थी | लेखक अपनी रचना देख कर खुश हो जाता था | फेसबुक और पेज का जमाना न था |




   

Wednesday, October 9, 2013

सौम्यता भी कीमती है ....

सौम्यता स्त्री का मनोहारी गुण है ...यही गुण आज खो रही हैं युवतियां ....आक्रोश से भरी लडकियां क्या चाहती हैं ...शायद उन्हें यह ज्ञान ही नहीं .....स्त्री घर की स्तम्भ है ...

मैं तो यहां यह भी जरूर कहना चाहूंगी कि सौम्यता पुरुष का भी एक गुण है जिसके बल पर वह अपना घर व रिश्ते बचाता है ...
.
घर का मुख्य कर्ता- धर्ता होने के कारण युवक  सौम्यता को समझदारी का चोला पहना कर जी रहे हैं ...

भरे पूरे सुविधासम्पन्न घर की महिलाएं अपने अंदर आक्रोश पाल अपने बच्चों को क्या तालीम दे रही हैं ....

बच्चे जब पिता के चरित्र से सम्मोहित होते जांय तो बच्चों का दोष नहीं ....

आज युवती कालेज , नौकरी ,राजनीति में आरक्षण का लाभ उठा कर युवकों से ज्यादा शक्तिशाली है .....

( एक पढ़ी लिखी गृहणी को देख कर मन में उपजे विचार )

Saturday, August 3, 2013

Always smile

Smile my dear 
make others feel 
that you are unbeatable 
how can a person be pushed down 
when he is eradicating corruption 
O my dear !
you are the icon of youth
do not let their moral let down .

Friday, June 21, 2013

Little lovely eyes

Days seem so dark
I don't know why 
But the WILL touches and feels path
Pushes me hard to walk forward
Hope of little lovely eyes
Forces me to balance myself
To move forward .