Sunday, September 11, 2016

कबीर


तिनका कबहुँ ना निन्दिये जो पाँवन तर होय ।
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय ।।
हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी, केस जलै ज्यूं घास ।
सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास ।।

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