Sunday, April 19, 2015

मुंह ढांप के सोना ही सुखद है |

-इंदु बाला सिंह 


मेरे दादा , दो भाई , एक भारत में सरकारी मास्टर दूसरा अंग्रेजों के समय दक्षिण के किसी द्वीप में कुछ वर्षों तक कमा  कर अपने गांव में एक मिट्टी का मकान , आठ बीघा खेत शहर में दो मकान खरीद लिये पर आज अपनी कमाई से कोई  सरकारी  मास्टर एक मकान  भी खरीदने के बारे में सोंच ही नहीं सकता |

केन्द्रीय विद्यालयों में भी कांट्रैक्ट में हर वर्ष ग्यारह महीनों के लिये शिक्षक नियुक्त किये जाते हैं | प्राईवेट स्कूल में तनख्वाह नगण्य है बस ट्यूशन का भरोसा है |

यह शहरों की कहानी है |

तो क्या यह नहीं लगता कि शहरों में हमारे बच्चों के भविष्य निर्माता अवहेलित हैं |

समस्या बड़ी है अब क्या किया जाय |


चलिये मुंह ढांप के सोना ही सुखद है |

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