Wednesday, April 30, 2014

कल्चर और संवेदनहीनता


30 April 2014
20:58
-इंदु बाला सिंह

मित्रता व रिश्ते गणित से जुड़ कर अपनी मिठास खो रहे हैं | सम्बन्धों के साहित्य ने अपना लावण्य खो दिया है | हम दो हमारा एक ही आज सत्य शिव और सुंदर है | यह कल्चर हमारे घर में समृद्धि तो लाता है पर हमारे मन में दूसरों के मन पढ़ पाने क्षमता खो देता है |
बच्चे का भविष्य बनाते बनाते एक दिन हम पाते हैं कि हम अकेले हैं और अब बच्चों को हमारी जरूरत नहीं | हम देखते हैं बेटे या बेटी की नौकरी के सर्कल में माता पिता की जगह नहीं है | आफिस की पिकनिक , सहकर्मियों की शादी व्याह या पडोस की गपशप में घर के बुजुर्ग का स्थान चौकीदार सरीखा हो जाता है | और यहीं से विभाजन शुरू होता है | बेटे या बेटी का परिवार और माता पिता का परिवार दो अलग इकाई बन अपने तरीके से जीने लगते हैं |
छोटा परिवार भैया भाभी , माता पिता , पुत्र पुत्री , चाचा चाची , मौसा मौसी , दादा दादी , नाना नानी सरीखे रिश्ते पड़ोसियों से बना हम वसुधैव कुटुम्बकम की भावना पोषित करते हैं पर सगे असहनीय है ...क्या विद्रूपता है हमारे सोंच की |
कौन कब धीरे से रेंग आता है हमारे छोटे से सुखी परिवार में और हमारे बच्चे को प्रौढ़ बना जाता है यह हम जान भी नहीं पाते |
हम विदेशी नस्ल के कुत्ते का खर्च तो उठा लेते हैं रक्त सम्बन्धी का नहीं | कुत्ते तो स्वामिभक्त हैं पर हमारे  अपने अनुभवों का जीता जगता इतिहास हैं उन्हें पास रखना हमें टाट में पैबंद सा लगता है |
आखिर यह सपनों का कल्चर गाँव से शहर , शहर से विदेश पहुचने का हमसे अपनी कीमत वसूल ही लेता है | यह आँख मूंद कर की गयी दौड़ के बाद हम जीवन संध्या में पाते हैं कि हमारी मुट्ठी में मात्र आज भी हमारे बचपन का आकाश बंद है | हमारे स्मरण में हमारा एक पल भी नही | आखिर क्यों ?